प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ‘नियाज़’ के काव्य में निहित मूल्य
अर्चना श्रीवास्तव1 एवं आभा तिवारी2
1सहायक प्राध्यापक, हिन्दी, पं. हरिशंकर शुक्ल स्मृति महाविद्यालय, रायपुर
2प्राध्यापक, हिन्दी, शा.दू.ब.म.स्ना. महाविद्यालय, रायपुर
‘मूल्य’ एक धारणा है जिसका सम्बन्ध मानव से है। भौतिक जगत में मूल्य का सम्बन्ध उपयोगिता से है जबकि वैचारिक जगत में मूल्य मनुष्य के अपनत्व से सम्बन्धित है। मानवीय संवेदना के अभाव में मूल्य की कल्पना नहीं कर सकते और इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि मूल्य बोध का अनिवार्य आधार व्यक्ति प्रतीत होता है अर्थात् जो वस्तु व्यक्ति के मन को परितोष प्रसाद आपूर्ति, प्रेरणा अथवा सार्थकता की अनुभूति जागृत करने में सहायक होती है, वह मूल्यवान प्रतीत होने लगती है। इस प्रकार ”मूल्य वह वैचारिक इकाई है, जिसे आधार बनाकर व्यक्ति अपना जीवन जीता है और उसे आत्मोपलब्धि होती है।“1
भारतीय संस्कृति का मूल सिद्धांत है - मानववाद। संसार एक विशाल प्रवाह है। विश्व के संपूर्ण घटक इस अनंत प्रवाह में बह रहे हैं। मानवीय जीवन-मूल्यों का इतिवृत सृष्टि के प्रारंभिककाल से अपनी धाराएँ निर्धारित करता हुआ अर्वाचीन युग तक क्रमिक विकास के पथ पर अपनी पहचान बनाता हुआ चला आ रहा है। विश्व के चिंतकों, विचारकों तथा साहित्य मनीषियों ने समयुगीन मानव-जीवन के मूल्यों के विकास के सम्बन्ध में विचार एवं चिंतन किया है। साहित्य की विविध विधाओं में जीवन-मूल्यों की चर्चा विस्तार से की गई है। कविता और कहानी में जीवन के मान-मूल्यों को लेकर काफी कुछ कहा तथा लिखा गया है।
वैयक्तिक एवं सामाजिक परिवर्तन की प्रत्येक प्रक्रिया मूल्यों में परिवर्तन के रूप में दिखाई देती है। सृजनशील कलाकार अपनी सर्जना का स्वरूप परिवर्तन क्रम में पाता है। इसलिये यह सिद्ध होता है कि समाज का चित्र मूल्यों के रूप में अभिव्यक्त होता है। वास्तव में मूल्य विशेष स्पृहणीय दृष्टिकोण की व्यंजना करते हैं। डाॅ. सिद्धनाथ की मान्यता है कि ”जो स्थान काव्य में शब्द, अभिधार्थ एवं व्यंजनार्थ का माना जाता है, वही साहित्य में मूल्य और दृष्टिकोण का है।“2
बिना मानवीय संवेदनाओं को केन्द्र में रखे मूल्य की कल्पना नहीं की जा सकती। मूल्यों के संदर्भ में डाॅ. धर्मवीर भारती कहते हैं कि ”सार्थकता का पहलू सबसे बड़ा मानव-मूल्य है।“3
डाॅ. रघुवंश ने अपने आलेख में लिखा है कि ”मूल्य-बोध का प्रश्न साहित्यकार की रचना प्रक्रिया का प्रश्न है। इस पर विचार वास्तव में इस रूप में होना चाहिए कि कला की रचना प्रक्रिया क्या है ? और उसके भीतर मूल्यों का या मानवीय जीवन-मूल्यों का कितना गहन और ठोस विस्तार समाहित है।“4
प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ‘नियाज़’ उन समर्थ रचनाधर्मियों में हैं, जिनकी रचनाधर्मिता अजस्त्र प्रवहमान रहती है। वे जीवन मूल्यों के औदात्य, वर्तमान की विसंगतियों, परिस्थितियों के बाँकपन, कवि की हृदयगत झंकृति, आत्म संस्कार, आत्मबोध, आत्मपीड़ा और आत्मानुभूत जीवन-दर्शन को आत्माभिव्यक्ति का कथ्य बनाते हैं। उनके काव्य में काव्य निहित सामाजिक, धार्मिक, राष्ट्रीय, राजनीतिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं दार्शनिक मूल्य जीवन के विविध आयामों को दर्शाते हैं।
सामाजिक मूल्य -
व्यक्ति आज जिन परिस्थितियों में जी रहा है, जिन संघर्षों से गुजर रहा है वे इतने भयानक हैं कि जब तक वह इन समस्त स्थिर, ठण्डे व अमानवीय किन्तु मानवीय जैसे लगने वाले मूल्यों के प्रति सक्रिय और जागरुक उदासीनता नहीं बरतेगा तब तक शायद उसकी निष्कृति उसके स्वत्व की रक्षा असंभव है।
इस प्रकार आज के युग की मौलिक समस्या व्यक्ति मानस की विस्थापित मनःस्थितियों में आत्मबल, विश्वास और आस्था को स्थापित करना है। सामाजिक मानदण्डों की उपयोगिता और उनका औचित्य स्वीकार करते हुए व्यक्ति को नगण्य मानना हमारे नैतिक आदर्शों का सबसे बड़ा विघटन है।
कवि ‘नियाज़’ ने अपने काव्य में व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों को नया आयाम देने का प्रयास किया है। कभी-कभी वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में अंतर्विरोध खड़ा हो जाता है और उसका निराकरण कठिन दिखाई पड़ता है। प्रेम के अभाव को उन्होंने समाज, देश और विश्व की सारी समस्याओं का कारण बताया है। ‘प्रेम’ संसार का शाश्वत मूल्य है। प्रेम को सर्वोपरि जीवन-मूल्य मानकर प्राणिमात्र से प्रेम करने का संदेश दिया है। प्रेम के उदात्त स्वरूप को समझाते हुए वे कहते हैं ..
जहाँ प्रेम है
स्वार्थ न होगा
मन को करो उदार -
बनाओ इतना व्यापक -
सारा विश्व समा जाए
तेरे अन्तर में।
कस्मै देवाय
सामाजिक जीवन मूल्यों में वर्णाश्रम व्यवस्था का विशेष महत्व रहा है। किन्तु आज के जीवन में इसका स्वरूप पूर्ववत नहीं रह पाया है। भारतवर्ष का अपना एक आदर्श सामाजिक ढांचा रहा है। जिसमें जीवन को सार्थकता प्रदान करने की पूर्ण क्षमता थी। आज युगानुरूप उसके स्वरूप में नया परिवर्तन आ चुका है। किन्तु मिश्र जी पारिवारिक एवं सामाजिक जीवनादर्शों के प्रति आस्थावान हैं एवं परंपरा में विश्वास रखते हैं। फलस्वरूप उनके काव्य में परंपरा पोषित मर्यादा के संकेत हमें इस तरह मिलते हैं .
”बंधु ! भ्रष्ट है मानव-जीवन, इसकी करुण कहानी।
पर इसमें भी कहीं कहीं रहते हैं अच्छे प्राणी,
वे सदैव ही साथ रहेंगे, विजय मिले या हार।
पार्थ ! तुम्हारी प्रत्यंचा के क्यों ढीले हैं तार ?“
अजस्त्रा
धार्मिक मूल्य -
धर्म मानव को सत् कार्यों की ओर प्रेरित करता है। इसी से मानवता का विकास होता है। साथ ही यह विश्व बंधुत्व की भावना की ओर व्यक्ति को अग्रसर करता है। ‘धर्म’ से तात्पर्य पूजा-पाठ नहीं वरन् आंतरिक कर्तव्य निष्ठा है। हरिभाऊ उपाध्याय के अनुसार ”जिससे मुनष्य की रक्षा और उन्नति हो वही धर्म है। धर्म एक कानून है जो मानवता का पूर्ण विकास करता है।“
धर्म के नाम पर जो विकृतियाँ समाज में पनप रही है, मिश्र जी ने उनके प्रति आक्रोश व्यक्त करते हुए धर्म के व्यापक स्वरूप को अपनाने पर बल दिया है। हमने आज स्वार्थ के वशीभूत होकर धर्म को जातियों और वर्गों में बाँट लिया है, जो देश के लिए हितकर नहीं है। धर्म के स्वरूप के सम्बन्ध में कवि अपनी दुविधा इन शब्दों में व्यक्त करता है -
कहो धर्म ! तुम
आज तुम्हारे किस स्वरूप को
हम हृदयंगम करें,
किसे अपनायें बोलो ?
कस्मै देवाय
राष्ट्रीय मूल्य -
‘राष्ट्र’ अत्यन्त व्यापक शब्द है, जिसमें भारत की सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक, नैतिक, साहित्यिक एवं राष्ट्रीय चेतना समाहित है। वैदिक साहित्य में ‘एकोऽहम बहुस्यामि’ का जो सूत्र है, वर्तमान संदर्भ में राष्ट्र चेतना को उसका पर्याय कहा जा सकता है। ‘राष्ट्र’ उस एकात्मक सत्ता के समान है, जो अपनी बहुलता में भारत के सौ करोड़ नागरिकों को समेटे हुए है। इस सम्बन्ध में यह निर्विवाद है कि प्रत्येक देशवासी का कर्तव्य है कि वह अपने देश या राष्ट्र के गौरव एवं सम्मान को स्थायी बनाए रखने का प्रयत्न करे। भारत माता को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए कवि ने देश के नवयुवकों का आवाह्न करते हुए राष्ट्रीय भाव धारा को प्रवाहित किया है -
मां के चरणों के दीवाने।
सजधज कर आज चले घर से
आजादी अपनी अपनाने।।
माता का उन्नत करो भाल,
होते स्वतंत्र भारत विशाल,
आजादी का यह मूल मंत्र,
प्रत्येक बंधु को सिखलाने।।
जननी जन्मभूमिश्च
राजनीतिक मूल्य -
जीवन के प्रति नैतिक दृष्टि को हम राजनीति का श्रेयस्कर मूल्य मानते हैं। वही राजनीति सार्थक है, जहाँ उसमें स्व-हित की अपेक्षा पर-हित की भावना हो। गाँधीवादी विचारधारा का प्रभाव भी इसी कारण स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि गाँधी जी की राजनीति में नैतिकता की प्रधानता थी। दूसरे शब्दों में उनके राजनीतिक मूल्य स्वार्थ-भावना से आप्लावित नहीं थे। उनका एकमात्र उद्देश्य हर हाल में देश को स्वतंत्र करवाना था। राजनीति में प्राचीन काल से राजतंत्र की महत्ता प्रतिपादित की जाती रही है। उस समय राजा प्रजा के रक्षक एवं पालक हुआ करते थे। वे प्रजा के दुःख को अपना दुःख समझते थे। आज प्रजातंत्र का बोल बाला है किन्तु राजनीति अब स्वार्थ और लोभ का केन्द्र हो गई है।
मिश्र जी गाँधी जी के राजनीतिक सिद्धांतों के प्रबल समर्थक रहे हैं। वे सच्चे अर्थों में राजनीतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करते प्रतीत होते हैं क्योंकि उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान इन मूल्यों को बहुत करीब से देखा है। उनका ध्येय एक ऐसे समाज और राष्ट्र का निर्माण करना है, जिसमें सभी के प्रति समानता का व्यवहार हो। ‘नियाज़’ जी उस दौर में युवा हुए जब एक ओर देशभक्त आजादी के लिए सर पर कफ़न बांधकर अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे, तो दूसरी ओर गाँधी सत्याग्रह और अहिंसा को अस्त्र बनाकर आमरण अनशन पर कारावास में बंदी रहकर मातृभूमि के लिए अपार कष्ट सहकर शांतिपूर्ण ढंग से आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे।
तब से आज तक एक लम्बा कालखण्ड बीत गया। आजाद भारत भौतिक रूप से विकसित हुआ पर विकास इतना संस्कृति विरोधी कभी नहीं था, जितना वर्तमान समय में है। वर्तमान युग में वैज्ञानिक तकनीकी विकास, संचार क्रांति तथा उपभोक्तावादी संस्कृति में उदारता, सहिष्णुता, नैतिकता, सत्य और ईमान अर्थात् जो कुछ भी रक्षणीय है, वह तिनके के समान उड़ रहा है। राष्ट्रीयता की चेतना विलुप्त हो रही है, स्वार्थपरता बढ़ रही है। जनता की सुरक्षा के लिए बने जनतांत्रिक संस्थान जनविरोधी ताकतों से समझौता कर रहे हैं। राजनीति में घोटालों की बाढ़ आ गयी है। कवि घोटालों से क्षुब्ध और छद्म व ढोंगी राजनीतिकों के दिखावे से त्रस्त है। ऐसे में राजनीति के सम्बन्ध में कवि के विचार इस तरह व्यक्त होते हैं -
”सत्य और आदर्श यहाँ पर घास चर रहें,
और जुगाली का प्रतिदिन अभ्यास कर रहें।
और सदन में वहाँ हो रहा है हंगामा,
रची गयी क्या इसीलिए यह राजनीति है ?
जिसमें कोई नीति न हो, वह राजनीति है।
जिसमें कोई प्रीति न हो, वह राजनीति है।।“
जननी जन्मभूमिश्च
आध्यात्मिक मूल्य -
भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक मूल्यों की अपेक्षा आध्यात्मिक मूल्य स्थायी, चिरंतन एवं शाश्वत् हैं। आध्यात्मिक मूल्यों में ‘सत्यम्, शिवम् एवं सुन्दरम्’ की चर्चा नैतिक जीवन की दृष्टि से की जाती है, जिनका सम्बन्ध बाह्य की अपेक्षा आन्तरिक से होता है। अर्थात् ये आत्मा की ही वस्तुएँ हैं, इन्हें आत्मानुभूति द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है। मोक्ष का सम्बन्ध भी आत्मानुभूति से है। दोनों में परस्पर साम्य स्पष्ट है, क्योंकि मोक्ष आत्म-मुक्ति है। डाॅ. राधाकृष्णन ने भारतीय जीवन-दर्शन के आधार पर मोक्ष को सर्वोपरि घोषित करते हुए आध्यात्मिक जीवन की प्रतिष्ठा प्रतिपादित की है। उन्होंने मोक्ष एवं आध्यात्मिक जीवन को एक धरातल पर प्रस्तुत किया है।
सुन्दरम् से प्रारंभ होकर सत्यम् और शिवम् की ओर जाने वाले मिश्र जी के काव्य में भावनाओं और विचारों का अद्भुत सम्मिश्रण है। आध्यात्मिकता के उज्ज्वल फलक पर उनकी कविताएँ अमिट छाप छोड़ती हैं। साई बाबा (पुट्टपर्ती) के जीवन, दर्शन एवं आदर्श से प्रभावित श्री मिश्र जी ने वर्षों तक आश्रम में रहकर साधना की है। वहाँ के अन्तेवासियों को अंग्रेजी पढ़ाई है। उसी दौरान वे कई पुस्तकों का लेखन सम्पादन और अनुवाद भी करते रहे। ये सभी पुस्तकें मिश्र जी की आध्यात्मिक निष्ठा और आस्था की सारस्वत प्रतीति कराती हैं। यहाँ कवि सर्जक से अधिक साधक दिखाई पड़ता है। कवि का अध्यात्म रहस्य की परतों में दबा ढँका ही आया है। कवि की सर्जना छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद, यथार्थवाद, प्रयोगवाद एवं अस्तित्ववाद से होकर अन्ततः उसे अध्यात्म की शरण में ले आती है। इसीलिये अपनी भावना को वह जगन्नियंता परमात्मा को समर्पित करते हुए कहता है -
”मैं चलता हूँ जीवन सरिता के इस तट पर,
मेरी ‘भावना’ नदी को तुम बह जाने दो।
वह सूत्रधार के बिना न कुछ कर पायेगी,
उसको ‘सरिता’ की लहरों में खो जाने दो।“
अजस्त्रा
सांस्कृतिक मूल्य -
राष्ट्रकवि दिनकर ने संस्कृति के सम्बन्ध में अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये हैं - ”असल में संस्कृति जिन्दगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है, जिसमें हम जन्म लेते हैं।“8
डाॅ. सत्यकेतु के अनुसार - ”चिन्तन द्वारा अपने जीवन को सुन्दर और कल्याणमय बनाने के लिए मनुष्य जो यत्न करता है, उसका परिणाम संस्कृति के रूप में प्राप्त होता है।“
विद्वानद्वय की उपर्युक्त परिभाषाएँ सांस्कृतिक मूल्यों की ओर संकेत करती हैं। डाॅ. देवराज ने तो संस्कृति का विवेचन ही जीवन-मूल्यों के संदर्भ में किया है। उनका कथन है कि ”किसी व्यक्ति की संस्कृति वह मूल्य चेतना है, जिसका निर्माण उसके संपूर्ण बोध के आलोक में होता है। सांस्कृतिक चेतना जितनी मूल्य-चेतना है, उतनी ही तथ्य-चेतना भी है। वह चेतना यथार्थ तथा सम्भाव्य को अर्थवत् रूप में ग्रहण करती है। मनुष्य लगातार जीवन की नई संभावनाओं का चित्र बनाता रहता है। यह सम्भाव्य चित्र ही वे मूल्य हैं, जिनके लिए वह जीवित रहता है। जिन आदर्शों एवं मूल्यों को लेकर मनुष्य जीवित रहता है, उसकी गरिमा और सौंदर्य उस मनुष्य के सांस्कृतिक महत्व का माप प्रस्तुत करते हैं।“9
मिश्र जी आस्थावादी कवि हैं। उन्होंने अपने खण्ड-काव्य ‘कस्मै देवाय’ में सत्य, धर्म, शांति, प्रेम और अहिंसा इत्यादि मूल्यों को प्रतिपाद्य बनाया है। किन्तु आज इन मूल्यों के बिगड़ते स्वरूपों को देखकर कवि का मन अत्यन्त क्षुब्ध है। यह उसे बार-बार कचोटता है कि स्वार्थपरता में पड़कर मनुष्य ने अपने ही शृंगार को उजाड़ डाला है। भारतीय संस्कृति के मूल मंत्र ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सांस्कृतिक मूल्य बिखरते जा रहे हैं। फिर भी आशा की किरणें संजोये हुए कवि कहता है -
प्रभु ! क्या यह विश्वास
जगेगा हर मानव में ?
इसके बल पर क्या वह
क्रांति लायेगा कोई ?
क्रांति कि जिसकी चिनगारी
फिर जीवित कर दे
आदर्शों को
भस्म रूप में
जो इन कलशों में रक्खे हैं।
कस्मै देवाय
युग की मृग-मरीचिका में अमूल्य सांस्कृतिक मूल्यों को सहेजते हुए निराशा ही हाथ लगने के कारण मिश्र जी के आक्रोश का सुधारवादी स्वर उनकी रचनाओं में मुखर हुआ है। उनकी पीड़ा उनकी अन्तश्चेतना को झकझोर देती है। कवि का विक्षुब्ध मन मानवीय मूल्यों को अनुप्राणित करने वाली कविता की सर्जना करता है क्योंकि कवि का विश्वास प्रबल है और आस्था अटूट। विश्वास की महत्ता को कवि इन शब्दों में व्यक्त करता है -
जीवन में संदेहों में विश्वास बड़ा है।
इस पर ही मानव का इतिहास खड़ा है।।
तरंगिणी
मिश्र जी भारतीय संस्कृति से पूर्णतः प्रभावित होने के कारण परंपरा से बंधे हुए दिखलाई देते हैं तो भी उनकी चिंतनधारा में युगानुरूप बौद्धिक विकास भी स्पष्ट झलकता है। एक ओर तो वे जीवन के भौतिक मूल्यों को यथार्थ के धरातल पर आंकते समय इनका सीमित महत्व स्वीकार करते हैं और दूसरी ओर भौतिक मूल्यों की अपेक्षा आध्यात्मिक मूल्यों की महत्ता को प्रतिपादित करते हैं। इतना ही नहीं कवि ने आध्यात्मिक मूल्यों को भौतिक-मूल्यों से श्रेष्ठ ज्ञापित करते हुए आध्यात्मिकता को भव-हित में सहायक माना है। उनके अनुसार ”विश्व की वर्तमान समस्याओं का यदि कोई भी हल संभव है, तो वह हमारी विशुद्ध आध्यात्मिकता में निहित है। एक ओर जहाँ व्यक्तिगत स्तर पर आध्यात्मिक विकास की महती आवश्यकता है, दूसरी ओर विश्व स्तर पर आध्यात्मिक पुनर्जागरण की भी आवश्यकता है।“
मिश्र जी ने अपनी आन्तरिक चेतना का आवाह्न दिव्य शक्ति के रूप में इस प्रकार किया है -
मृत्युंजय ! जागो, अब,
कैसी समाधि तेरी,
कौन-सा तत्व खोजने में
तुम लीन हो ?
कोटि-कोटि कण्ठों का
आर्तनाद पहुँचा नहीं
तेरे कर्ण गुहारों तक।
कस्मै देवाय
कवि आस्थावादी है और उसके विश्वास का स्तर ऊँचा है, जो सत्य को इस प्रकार परिभाषित करता है -
यही चिरंतन रूप ब्रह्म का,
देश-काल की मर्यादा से परे,
अमर है, और साथ ही,
शिव-सुन्दर है।
ऋषियों ने मुनियों ने,
इसके गुण गाये हैं।
विजय इसी की होती,
यह सुनते आये हैं।
कस्मै देवाय
दार्शनिक मूल्य -
साहित्य निश्चय ही आत्माभिव्यक्ति है। इसीलिए सृजन-प्रक्रिया के अन्तरंग क्षणों में साहित्यकार जीवन-मूल्यों और उनके विकास की संभावनाओं पर निद्र्वन्द्व होकर विचार करता है। सृजन प्रक्रिया के इस अनायास और सहज चिन्तन की अभिव्यक्ति उसके कृतित्व में उतर आती है और उसकी कृति के माध्यम से हम देश और काल को विशिष्ट संदर्भ में उसके दार्शनिक मूल्यों के साथ देखते हुए जीवन मूल्यों का बोध कर सकते हैं।11
मिश्र जी ने जीवन-मूल्यों के औदात्य, वर्तमान की विसंगतियों, परिस्थितियों के बाँकपन, कवि की हृदयगत् झंकृति, आत्म-संस्कार, आत्मबोध, आत्मपीड़ा और आत्मानुभूत जीवन-दर्शन को आत्माभिव्यक्ति बनाया है। उनके गीतों की रागिनी जहाँ कवि की व्यथा गाती है, वहीं वह जग की पीड़ा को भी स्वर देती है। जहाँ वे अपने अदृश्य से कहते हैं -
मुझे प्यार से मत बांधों, बहने दो जीवन धारा में।
मुझे न बन्दी करो आज इस परम स्नेह की कारा में।।
अपनी तरी स्वयं खेने दो आँधी में तूफानों में।
इसकी लघुता भली, छिपेगी ये न बड़े जलयानों में।।
अजस्त्रा
वहीं वे स्मृतियों के संसार में खो जाने की बात भी यूँ कहते हैं -
तरु के नीचे बैठे छाँव में बातें करें अतीत की।
अंजुरी भरी रेत में खोजें यादें मन के मीत की।।
अजस्त्रा
एक ओर जहाँ वह संसार से मुक्ति की कामना करता है, वहीं दूसरी ओर अतीत से बँधने की लालसा भी। वे राग और विराग दोनों का स्वर संधान करते हैं। कवि आत्मानुभूति में ही क्षण-बोध, जीवन-सत्य और वैराग्य-चेतना पा लेता है। उसके स्वर में जीवन, जगत और निराकार की झंकृतियाँ गूँजती हैं। मिश्र जी उस मानसिक धरातल के कवि हैं, जो जीवन में रहकर भी जीवन से विरक्त है। जो स्वयं अपने प्रश्न गढ़ता है और स्वयं ही उसका उत्तर ढूंढता है। उनके गीतों में जीवन के प्रति गहन आस्था का स्वर मुखरित है और सब कुछ छोड़कर उस पार चले जाने की छायावादी चेतना भी -
अब चले उस पार,
चल मन ! अब चलें उस पार।
व्यर्थ की यह मोह-ममता व्यर्थ यह शृंगार। अजस्त्रा
मिश्र जी ने अपने आत्मकथ्य में लिखा है ”मेरी कृतियों में अनेक स्थलों पर निराशावादी स्तर मिल सकता है, किन्तु निराशा जीवन का अन्त नहीं है, उसका प्रारम्भ है।“ उनके काव्य में जीवन और जगत का भावमय चित्रण हुआ है। काव्य यात्रा में हर पड़ाव पर वे आत्म-चिंतन करते हैं। संत्रास और संघर्ष के बीच वे हारते नहीं वरन् पूरे विश्वास के साथ कहते हैं -
मैंने हार नहीं मानी है,
तुमने पथ रोका है मेरा,
मैंने चलने की ठानी है।
तरंगिनी
मिश्र जी का दर्शन आशा और विश्वास, आस्था और उल्लास का दर्शन है जो इन पंक्तियों में स्पष्ट परिलक्षित होता है -
जीवन में विश्वास चाहिए।
हृदयों में सागर नयनों मेें मेघों का इतिहास चाहिए।
कभी-कभी संदेह-कुंज में आशा को पलते देखा है।
और निराशा की किरणों को क्षितिज पार ढलते देखा है।
दुविधा की घाटी में मुझको एक तरल उल्लास चाहिए।
तरंगिणी
संदर्भ ग्रंथ सूचीरू
1ण् सहगल शशि, नई कविता में मूल्य, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 16
2ण् सिद्धनाथ, शब्दार्थ विवेचना, साहित्य संदेश, पृष्ठ 13
3ण् भारती धर्मवीर, ‘लहर’, सितम्बर 1960, पृष्ठ 60
4ण् डाॅ. रघुवंश, लहर, सितम्बर 1960, पृष्ठ 46
5ण् मिश्र भागवत प्रसाद, कस्मै देवाय खण्डकाव्य, पृष्ठ 51, 32, 79, 3, 7
6ण् मिश्र भागवत प्रसाद, अजस्त्रा काव्य संग्रह, पृष्ठ 70, 23, 104, 9
7ण् मिश्र भागवत प्रसाद, जननी जन्मभूमिश्च काव्य संग्रह, पृष्ठ 18, 122
8ण् दिनकर रामधारी सिंह, संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ 656
9ण् डाॅ. देवराज, संस्कृति का दार्शनिक विवेचन
10ण् मिश्र भागवत प्रसाद, तरंगिणी काव्य संगह, पृष्ठ 30, 82, 110
11ण् साहित्य परिजात (साहित्यिक सांस्कृतिक त्रैमासिक), अप्रैल-जून 2002, संपादक-डाॅ. सुन्दरलाल कथूरिया, बी-3/74, जनकपुरी, नई दिल्ली-110058 से प्रकाशित
Received on 15.02.2011
Accepted on 05.03.2011
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Research J. Humanities and Social Sciences. 2(1): Jan.-Mar. 2011, 09-12